Wednesday, 7 April 2021

पंचकोल

 पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरैः। 

पञ्चभिः कोलमात्रं यत्पञ्चकोलं तदुच्यते ॥(भा.प्र/हरीत./७२)  

पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः।
सर्वैरकत्र मिलितैः पञ्चभिःपञ्चकोलमुच्यते ॥ (रा.नि.मिश्रक/२४) 

पंचकोलकमेतच्च मरिचेन विना स्मृतम् । 
गुल्मप्लीहोदरानाहशूलघ्नं दीपनं परम् ॥ (अ.सं.सू. १२/५५-५६) 

पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरम् । 
एकत्र मिश्रितैरैभिः पञ्चकोलमुच्यते ॥(ध.नि./मिश्रक/१२)
 
पिप्पलीमागधमूलचव्यनागरचित्रकैः। 
पञ्चकोलम्.....(म.पा.नि./शुण्ठ्यादि/२३)

व्याख्या --- पिप्पली , पिप्पलीमूल , चव्य , चित्रक व सौंठ इन पांचों के मिश्रण को पञ्चकोल कहते हैं। 

पञ्चकोल के गुणकर्म ---- 


पञ्चकोलं रसे पाके कटुकं रुचिकृन्मतम्। 
तीक्ष्णोष्णं पाचनं श्रेष्ठं दीपनं कफवातनुत् ॥
गुल्मप्लीहानाहशूलघ्नं पित्तप्रकोपनम्। (भा.प्र./हरीत./७२-७३) 

व्याख्या ---
★ पञ्चकोल का रस व विपाक कटु होता हैं। 
★ रूचि को बढ़ाने वाला होता हैं। 
★ तीक्ष्ण , उष्ण , पाचन व दीपन करने वाला होता हैं। 
★ कफ व वात का नाश करने वाला होता हैं। 
★ गुल्म , प्लीहा , आनाह , शूल का नाश करने वाला होता हैं। 
★ पित्त प्रकोप करने वाला होता हैं। 

पञ्चकोलं कफानाहगुल्मशूलारुचीर्जयेत्। (म.पा.नि./शुण्ठ्या/ २३)

व्याख्या --- पञ्चकोल आनाह , गुल्म , शूल और अरुचि का नाश करने वाला होता हैं। 

पञ्चकोलं त्रिदोषघ्नं रुच्यं दीपनपाचनम्। 
स्वरभेदहरं चैव शूलगुल्मार्तिसारनाशनम्॥ (ध.नि./मिश्रक/१३) 

व्याख्या ---- 
★ पंचकोल त्रिदोष का नाश करने वाला होता हैं।
★ रूचि उत्पन्न करने वाला होता हैं। 
★ दीपन , पाचन करने वाला होता हैं। 
★ स्वरभेद का नाश करने वाला होता हैं। 
★ शूल , गुल्म व अतिसार का नाश करता हैं। 


चतुरुषण

 त्र्युषणं सकणामूलं कथितं चतुरूषणम्। (भावप्रकाश /हरीतक्यादि/६६)

…………… तत्स्यात्सग्रन्थि चतुरूषणम्। (म.पा.नि. शुण्ठ्यादि/१५) 

व्याख्या --- त्रिकटु में पिप्पलीमूल मिलाना चतुरुषण कहलाता हैं। 

चतुरुषण के गुणकर्म  ---- 


व्योषस्येव गुणाः प्रोक्ता अधिकाश्चतुरूषणे॥ (भावप्रकाश/हरीक्यादि/६६)

व्याख्या -- चतुरुषण में त्रिकटु के समान गुण होते हैं।  तथा चतुरुषण त्रिकटु से अधिक उष्ण होता हैं। 


त्रिमद

 मुस्तं चित्रं विडंगञ्च त्रिमदः परिकीर्तितः।।(महौषध नि/सं./१६)

विडंगमुस्तचित्रैश्च त्रिमद समुदाहृतः। 

व्याख्या ---
मुस्तक , चित्रक और विडंग इन तीनों के समभाग मिश्रण को त्रिमद कहते हैं।

त्रिमद के गुणकर्म --


त्रिमदः कफमन्दाग्निकासाऽजीर्णक्रिमीञ्जयेत्। (महौषध नि./सं.१६) 

व्याख्या --- 
★ त्रिमद कफ , अग्निमांद्य तथा कास का नाश करने वाला होता हैं। 
★ त्रिमद  अजीर्ण तथा कृमि में हितकारी होता हैं। 


त्रिकटु

विश्वोपकुल्या मरिचं त्रयं त्रिकटु कथ्यते। 

कटुत्रिकं तु त्रिकटु त्र्यूषणं व्योष उच्यते॥ (भाव./हरी/६२)

पिप्पली मरिचं शुण्ठी त्रयमेतद्विमिश्रितम् । 
त्रिकटु त्र्यूषणं त्र्यूषं कटुत्रयकटुत्रिकम् ॥  (रा. नि. मिश्रक/२)

पिप्पली मरिचं शुण्ठी त्रयमेतद्विमिश्रितम् । 
त्रिकटु त्र्यूषणं व्योषं कटुत्रयमिहोच्यते ॥ (ध. नि./मिश्रक/५)

विश्वोपकुल्या मरिचत्र्यूषणं कटुकं कटु । 
व्योषं कटुत्रयं ……………..||

व्याख्या -- पिप्पली , मरिच , शुण्ठी इन तीनों के समान भाग को मिलाने पर त्रिकटु कहलाता हैं। फलत्रिक, त्रिकटु , त्र्यूषण , त्र्युष , कटुत्रिक , कटुत्रय और व्योष ये आपस में पर्याय होते हैं। 

त्रिकटु के गुणकर्म -- 


त्र्यूषणं दीपनं हन्ति श्वासकासत्वगामयान्।
गुल्ममेहकफस्थौल्यमेदःश्लीपदपीनसान् ॥ (भा. प्र./हरीतक्यादि) 

त्र्यूषणं दीपनं हन्ति श्वासकासत्वगामयान्।
गुल्ममेहकफस्थौल्यमेदःश्लीपदपीनसान् ॥ (म.पा.नि.शुण्ठ्या ./१५) 

व्याख्या --
★ त्रिकटु दीपन करने वाला होता हैं। 
★ श्वास , कास तथा त्वचा रोगों का नाश करने वाला होता हैं। 
★ गुल्म , प्रमेह , कफज रोग , स्थौल्य , मेद , श्लीपद और पीनस रोग में लाभदायक होता हैं। 

दीपनं रुचिदं वातश्लेष्ममन्दाग्निशूलनुत् ।(ध.नि.मिश्रक/५) 

व्याख्या --
★ दीपन करने वाला होता हैं। 
★ रूचि को बढ़ाने वाला होता हैं। 
★ वात- कफ रोंगो का नाश करने वाला होता हैं। 
★ मन्दाग्नि का नाश करने वाला होता हैं, तथा शूल का नाश करता हैं।


त्रिफला

हरीतक्यामलकबिभीतकानि त्रिफला।(सु. सू. ३८/५६) 

पथ्याबिभीतधात्रीणां फलैः स्यात्रिफला समैः।
फलत्रिकञ्च त्रिफला सा वरा च प्रकीर्तिता॥ (भा. प्र./हरीत./४२) 
हरीतकी चाऽऽमलकं बिभीतकमिति त्रयम्।
त्रिफला च वरा श्रेष्ठतमं ज्ञेयं फलत्रिकम् ॥ (ध. नि. मिश्रक/१) 
हरीतकी चामलकबिभीतकमिति त्रयम्।
त्रिफला त्रिफली चैव फलत्रयफलत्रिके॥ (रा. नि. मिश्रक/३)

विमर्श --- हरीतकी , बिभीतक व आँवला इन तनो को शुष्क अवस्था में समान मात्रा में लेना त्रिफला कहलाता हैं। 
★ फलत्रिक , फलत्रय , त्रिफला , त्रिफली तथा वरा ये सभी त्रिफला का पर्याय हैं। 
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एका हरीतकी योज्यो द्वौ योज्यो च बिभीतकौ।
चत्वार्यामलकानि च ..................../ (शा. सं.) 

हरीतक्यास्त्रयोभागाः शिवाद्वादशभागिका।
षड्भागाः स्युर्बिभीतस्य त्रिफलेयं प्रकीर्तिता॥ (म. पा. नि./हरीत./३१)

विमर्श -- हरीतकी एक , बिभीतक दो तथा चार आँवला लेकर मिलाना त्रिफला कहलाता हैं। 

त्रिफला के गुणकर्म 

त्रिफला कफपित्तघ्नी मेहकुष्ठहरा सरा।
चक्षुष्या दीपनी रुच्या विषमज्वरनाशनी ॥ (सुश्रुत ३८, भा. प्र./हरीत. ४३) 

व्याख्या -- 
★ त्रिफला कफपित्त का नाश करने वाला होते हैं। 
★ त्रिफला प्रमेह व कुष्ठ का नाश करने वाला होता हैं। 
★ त्रिफला चक्षुष्य होता हैं अर्थात नेत्र के लिए हितकर होता हैं। 
★ त्रिफला दीपन करने वाला होता हैं तथा रूचि उत्पन्न करने वाला होता हैं। 
★ त्रिफला विषमज्वर का नाश करने वाला होता हैं। 


त्रिफला च त्रिदोषघ्नी दीपनी स्यात् रसायनी। 
वृष्या मेहहरा दिव्या नेत्ररोगहरा मता॥(ध. नि. मिश्रक/२)

व्याख्या ---
★ त्रिफला त्रिदोष का नाश करने वाला होता हैं। दीपन , रसायन , वृष्य , प्रमेह का नाश करने वाला , दिव्य ( मेध्य ) तथा नेत्र रोगों का नाश करने वाला होता हैं। 

इमं रसायनवरा त्रिफलाऽक्ष्यामयापहा। 
रोपणी त्वरगदक्लेदमेदोमेहकफास्त्रजित्॥ (अ.सं.सू. १८४७-४८) 

व्याख्या ---
त्रिफला रसायन हैं, नेत्ररोग का नाश करने वाला होता हैं , रोपण तथा त्वचा का रोग नष्ट करने वाला होता हैं,, क्लेद , मेदोरोग , प्रमेह, कफ और रक्त रोगों को नष्ट करने वाला होता हैं। 

पित्तं माधुर्यशैत्याभ्यां कफं रूक्षकषायतः। 
त्रिफलैतत्त्रयेण स्याद्वरा श्रेष्ठा फलोत्तमा॥ (म. पा. नि. हरीतक./३२) 

व्याख्या --
★ त्रिफला मधुर, शीतगुण के कारण पित्त का शमन करने वाला होता हैं। 
★ रूक्ष और कषाय के कारण कफ का शमन करने वाला होता हैं। 
★ त्रिफला वरा और फलोत्तमा इसके पर्याय हैं।


जीवनीय पंचमूल

 अभीरुवीराजीवन्तीजीवकर्षभकैः स्मृतम्।(ध.नि./मिश्रक/२५, अ.हृ.सू.६/६०, अ.सं.सू. १२/६०) 

शाकश्रेष्ठाऽभीरुपत्रीवीराजीवकर्षभकैः।(कै.नि./औषध/७६)

व्याख्या --- शतावरी , काकोली , जीवन्ती , जीवक और ऋषभक इन पांचो की मूल जीवनीय पञ्चमूल कहलाती हैं। 

जीवनीय पञ्चमूल के गुणकर्म --- 


जीवनाख्यं च चक्षुष्यं वृष्यं पित्तानिलापहम् ॥(ध.नि. ७/२५, अ.हृ.सू. ६/६०) 

व्याख्या ---
★ चक्षुष्य अर्थात नेत्र के लिए हितकारी होता हैं। 
★ वृष्य व पित्त-वात का नाश करता हैं। 

जीवनाख्यं पंचमूलं वृष्यं पित्तानिलापहम्।
चक्षुष्यं बृहणं बल्यं दाहतृष्णाज्वरप्रणुत्॥ (कै.नि/औषधि/७७) 

व्याख्या ---- 
★ वृष्य व पित्त-वात का नाश करता हैं।
★ चक्षुष्य , बृंहण , बल्य , दाह , तृष्णा और ज्वर का नाश करता हैं। 


मध्यम पंचमूल

 बलापुनर्नवैरण्डशूर्पपर्णीद्वयेन तु।(अ.हृ.सूत्र. ६)

बलापुनर्नवैरण्डशूर्पपर्णीद्वयेन च।(ध.नि./मिश्रक/२०) 

बलापुनर्नवैरण्डसूर्यपर्णीद्वयेन च। 
एकत्र योजितेनैतन्मध्यमं पञ्चमूलकम् ॥ (रा.नि./मिश्रक/२९) 

माषपर्णीमुद्गपर्णीबलैरण्डपुनर्नवैः। 
मध्यमाख्यं पंचमूलं कफवातहरं परम्॥(कै.नि.औ./७५) 

मुद्गपर्णीमाषपर्णीबलैरण्डपुनर्नवैः।
मध्यमाख्यं ..........................॥ (कै.नि./मिश्रक/४)

व्याख्या -- बला , पुनर्नवा , एरण्ड , शालपर्णी व पृश्निपर्णी , इन पांचो की मूल मध्यम पञ्चमूल कहलाती हैं। 

मध्यम पञ्चमूल के गुणकर्म ---


मध्यमं कफवातघ्नं नातिपित्तकरं स्मृतम्।(अ.हृ.सूत्र. ६/७०) 

मध्यमं कफवातघ्नं नातिपित्तकरं सरम्।(ध.नि. ७/२०)
व्याख्या ---
★ यह कफ-वात का नाश करता हैं। लेकिन पित्त को नहीं बढ़ाता हैं। 


वल्ली पंचमूल


 विदारीसारिवारजनीगुडूच्योऽजश्रृंगी चेति वल्लीसंज्ञः। (सु.सू. ३८/७३)


निशामृता मेषश्रृंगी गोपवल्ली विदारिका। 
वल्याख्यं पंचमूलं ......................(कै.नि. मिश्रक/५) 

अजश्रृंगी हरिद्रा च विदारी सारिवाऽमृता। 
वल्ल्याख्यं ........................॥(अ.सं. १२४६१-६२)

व्याख्या --- विदारी , सारिवा , हरिद्रा , गुडूची और अजश्रृंगी इन पंचो की मूल वल्ली पञ्चमूल कहलाती हैं। 
विमर्श -- यहाँ पर रजनी से मंजिष्ठा लेना उचित हैं। 

वल्ली पञ्चमूल के गुणकर्म ---


रक्तपित्तहरौ ह्येतौ शोफत्रयविनाशनौ । 
सर्वमेहहरौ चैव शुक्रदोषविनाशनौ ।। (सु.सु. ३८/७६) 

व्याख्या --- 
★ कण्टक पञ्चमूल व वल्ली पंचमूल रक्तपित्त का शमन करते हैं। तीनों प्रकार के शोथ , सभी प्रकार के प्रमेह और शुक्र दोष का नाश करते हैं। 

सर्वदोषहरे च ते।(अ.सं. १२/६२) 

व्याख्या --- कण्टक पञ्चमूल व वल्ली पञ्चमूल सभी प्रकार के दोषो का नाश करती हैं। 


लघु पंचमूल


तत्र त्रिकण्टकबृहतीद्वयपृथक्पण् र्यो विदारीगन्धा चेति कनीयः ।(सु.सू. ३८/६७)

शालपर्णी पृश्निपर्णी बृहती कण्टकारिका।
तथा गोक्षुरकश्चैव पञ्चमूलं लघु स्मृतम्। (ध.नि.मिश्रक/२१)

शालपर्णी पृश्निपर्णी वार्ताकी कण्टकारिका। 
गोक्षुरः पञ्चभिश्चैतैः कनिष्ठं पञ्चमूलकम् ॥ (भा.प्र./गुडू./४७) 

ह्रस्वं बृहत्यंशुमतीद्वयगोक्षुरकैः स्मृतम् ।(अ.सं.सू./६०) 

ह्रस्वं बृहत्यंशुमतीद्वयगोक्षुरकैः स्मृतम्।(कै.नि./औषध/७२) 

शालपर्णी पृश्निपर्णी बृहती कण्टकारिका। 
तथा गोक्षुरकश्चेति लध्विदं पञ्चमूलम्॥ (राजनिघण्टु मिश्रक/२६) 

एरण्डबृहतीद्वयं पृथक्पर्णी सालपर्णी विदारीगन्धादौ। (सौश्रुत निघण्टु)

व्याख्या--- शालपर्णी , पृश्निपर्णी , बृहती , कण्ठ्कारी और गोक्षुर इन पांचो की मूल का मिश्रण लघु पञ्चमूल कहलाता हैं। 

लघु पञ्चमूल के गुणकर्म --- 


कषायतिक्तमधुरं कनीय: पञ्चमूलकम् । 
वातघ्नं पित्तशमनं बृंहणं बलवर्धनम् ॥(सु.सु. ३८/६७) 

व्याख्या --- 
★ लघु पञ्चमूल कषाय , तिक्त व मधुर रस प्रधान होता हैं। 
★ वात-पित्त का नाश करने वाला होता हैं। 
★ बृंहण और बल बढ़ाने वाला होता हैं। 

पञ्चमूलं लघु स्वादु बल्यं पित्तानिलापहम्। 
नात्युष्णं बृहणं ग्राहि ज्वरश्वासाश्मरीप्रणुतम्॥ (भा.प्र./गुडू./४८) 

व्याख्या --- 
★ गुण में लघु , मधुर रस , पित्त-वात का नाश करने वाला होते हैं। 
★ कुछ उष्ण , बृंहण , ग्राही , ज्वर और श्वास नाशक होता हैं। 

स्वादुपाकरसं नातिशीतोष्णं सर्वदोषजित् ॥ (कै.नि./औषध/७३) 

व्याख्या --- 
★ रस व विपाक में मधुर होता हैं। 
★ वीर्य में अनुष्ण तथा त्रिदोष का नाश करने वाला होता हैं। 

ह्रस्वाख्यं पञ्चमूलं स्यात्पञ्चभिर्गोखुरादिभिः। 
बल्यं पित्तानिलहरं नात्युष्ण स्वादु बृंहणम् ॥(म.पा.नि./हरी/७१)

व्याख्या ---- 
★ बल्य , पित्त वात का नाश करने वाला होता हैं। 
★ वीर्य में अनुष्ण तथा मधुर रस होता हैं।
★ बृंहण करने वाला होता हैं। 


बृहत पंचमूल


 पञ्चमूलं त्रिदोषघ्नं वातघ्नं लघुसंज्ञकम। 

ज्वरकासश्वासशूलमन्दाग्न्यरुचिनाशम्॥(ध.नि./मिश्रक/२२)

बिल्वाग्निमन्थटिण्टुकपाटला: काश्मर्यश्चेति महत्।(सु.सू.) 

श्रीफलः सर्वतोभद्रा पाटला गणिकारिका।
स्योनाक:पञ्चभिश्चैतैः पञ्चमूलं महन्मतम्॥ (महौ.नि./सं. वर्ग/१८)
 
श्रीफल: सर्वतोभद्रा पाटला गणिकारिका।
श्योनाक: पञ्चभिश्चैतेः पञ्चमूलं महन्मतम् ॥ (भा.प्र./गुडू./२९) 

बिल्वोऽग्निमन्थः श्योनाक: काश्मर्यः पाटला तथा। 
सर्वेस्तु मिलितैरेतैः स्यान्महापञ्चमूलकम्॥(रा.नि. मिश्रक/२७) 

बिल्वकाश्मर्यतर्कारिपाटलाटिण्टुकैर्मतम् ।(कै.नि. औषध/७१)

बिल्वोऽग्निमंन्थः श्योनाक: काश्मर्यः पाटला तथा।
ज्ञेयं महापञ्चमूलं .......... ... . .॥ (ध.नि./मिश्रक/१७) 

व्याख्या -- बिल्व , अग्निमन्थ , श्योनाक , पाटला और गम्भारी इन पांचो की मूल बृहतपंचमूल कहलाती हैं। 

बृहतपंचमूल के गुणकर्म ---- 


तिक्तं कफवातघ्नं पाके लध्वग्निदीपनम् । 
मधुरानुरसं चैव पञ्चमूलं महन्मतम् ॥ (सुश्रुत)

व्याख्या --- 
★ तिक्त रस युक्त तथा कफवात शामक होता हैं। 
★ विपाक में लघु व दीपन करने वाला होता हैं। तथा अनुरस में मधुर होता हैं। 

पञ्चमूलं महत् तिक्तं कषायं कफवातनुत् । 
मधुरं श्वासकासघ्नमुष्णं लघ्वग्निदीपनम् ॥(भा.प्र./गुडू./३०) 

पञ्चमूलं कषायोष्णं सतिक्तं कफवातजित् । 
मधुरानुरसं तिक्तं पाके लध्वग्निदीपनम्॥ (कै.नि./औषध/७१-७२) 

व्याख्या --- 
★ तिक्त व कषाय रस युक्त होता हैं। 
★ कफ व वात का नाश करता हैं। 
★ उष्ण वीर्य वाला होता हैं। 
★ लघु व श्वास का नाश करने वाला तथा दीपन करने वाला होता हैं। 

बिल्वादिभिः पञ्चभिरेतत्स्यात्पञ्चमूलं महदग्निकारि।
लघूष्णतिक्तं रसतः कषायं मेदःकफश्वाससमीरहारि॥ (म.पा.नि./हरी./५७) 

व्याख्या --- 
★ अग्नि को बढ़ाने वाला होता हैं।  
★ लघु , उष्ण तथा तिक्त व कषाय रस वाला होता हैं। 
★ मेद , कफ , श्वास व वायु का शमन करने वाला होता हैं। 

जयेत्कषायं तिक्तोष्णं पंचमूलं कफानिलौ ।(अ.स.सू. १२/५७) 

व्याख्या -- 
★ तिक्त उष्ण व कफ वात का नाश करने वाला होता हैं। 


पंचकोल

  पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरैः।  पञ्चभिः कोलमात्रं यत्पञ्चकोलं तदुच्यते ॥(भा.प्र/हरीत./७२)   पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः। सर्व...